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सांवा की फसल

मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

भारत के किसान भाइयों के लिए मिलेट की फसलें आने वाले समय में अच्छी उपज पाने हेतु अच्छा विकल्प साबित हो सकती हैं। आगे इस लेख में हम आपको मिलेट्स की फसलों के बारे में अच्छी तरह जानकारी देने वाले हैं। मिलेट फसलें यानी कि बाजरा वर्गीय फसलें जिनको अधिकांश किसान मिलेट अनाज वाली फसलों के रूप में जानते हैं। मिलेट अनाज वाली फसलों का अर्थ है, कि इन फसलों को पैदा करने एवं उत्पादन लेने के लिए हम सब किसान भाइयों को काफी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता। समस्त मिलेट फसलों का उत्पादन बड़ी ही आसानी से लिया जा सकता है। जैसे कि हम सब किसान जानते हैं, कि सभी मिलेट फसलों को उपजाऊ भूमि अथवा बंजर भूमि में भी पैदा कर आसान ढ़ंग से पैदावार ली जा सकती है। मिलेट फसलों की पैदावार के लिए पानी की जरुरत होती है। उर्वरक का इस्तेमाल मिलेट फसलों में ना के समान होता है, जिससे किसान भाइयों को ज्यादा खर्च से सहूलियत मिलती है। जैसा कि हम सब जानते हैं, कि हरित क्रांति से पूर्व हमारे भारत में उत्पादित होने वाले खाद्यान्न में मिलेट फसलों की प्रमुख भूमिका थी। लेकिन, हरित क्रांति के पश्चात इनकी जगह धीरे-धीरे गेहूं और धान ने लेली और मिलेट फसलें जो कि हमारी प्रमुख खाद्यान्न फसल हुआ करती थीं, वह हमारी भोजन की थाली से दूर हो चुकी हैं।

भारत मिलेट यानी मोटे अनाज की फसलों की पैदावार में विश्व में अव्वल स्थान पर है

हमारा भारत देश आज भी मिलेट फसलों की पैदावार के मामले में विश्व में सबसे आगे है। इसके अंतर्गत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, झारखंड, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किसान भाई बड़े पैमाने पर मोटे अनाज यानी मिलेट की खेती करते हैं। बतादें, कि असम और बिहार में सर्वाधिक मोटे अनाज की खपत है। दानों के आकार के मुताबिक, मिलेट फसलों को मुख्यतः दो हिस्सों में विभाजित किया गया है। प्रथम वर्गीकरण में मुख्य मोटे अनाज जैसे बाजरा और ज्वार आते हैं। तो उधर दूसरे वर्गीकरण में छोटे दाने वाले मिलेट अनाज जैसे रागी, सावा, कोदो, चीना, कुटुकी और कुकुम शम्मिलित हैं। इन छोटे दाने वाले, मिलेट अनाजों को आमतौर पर कदन्न अनाज भी कहा जाता है।

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वर्ष 2023 को "अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष" के रूप में मनाया जा रहा है

जैसा कि हम सब जानते है, कि वर्ष 2023 को “अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया जा रहा है। भारत की ही पहल के अनुरूप पर यूएनओ ने वर्ष 2023 को मिलेट वर्ष के रूप में घोषित किया है। भारत सरकार ने मिलेट फसलों की खासियत और महत्ता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2018 को “राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया है। भारत सरकार ने 16 नवम्बर को “राष्ट्रीय बाजरा दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

मिलेट फसलों को केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर से बढ़ावा देने की कोशिशें कर रही हैं

भारत सरकार द्वारा मिलेट फसलों की महत्ता को केंद्र में रखते हुए किसान भाइयों को मिलेट की खेती के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है। मिलेट फसलों के समुचित भाव के लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा किया जा रहा है। जिससे कि कृषकों को इसका अच्छा फायदा मिल सके। भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के स्तर से मिलेट फसलों के क्षेत्रफल और उत्पादन में बढ़ोत्तरी हेतु विभिन्न सरकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिससे किसान भाई बड़ी आसानी से पैदावार का फायदा उठा सकें। सरकारों द्वारा मिलेट फसलों के पोषण और शरीरिक लाभों को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण एवं शहरी लोगों के मध्य जागरूकता बढ़ाने की भी कोशिश की जा रही है। जलवायु परिवर्तन ने भी भारत में गेहूं और धान की पैदावार को बेहद दुष्प्रभावित किया है। इस वजह से सरकार द्वारा मोटे अनाज की ओर ध्यान केन्द्रित करवाने की कोशिशें की जा रही हैं।

मिलेट यानी मोटे अनाज की फसलों में पोषक तत्व प्रचूर मात्रा में विघमान रहते हैं

मिलेट फसलें पोषक तत्वों के लिहाज से पारंपरिक खाद्यान गेहूं और चावल से ज्यादा उन्नत हैं। मिलेट फसलों में पोषक तत्त्वों की भरपूर मात्रा होने की वजह इन्हें “पोषक अनाज” भी कहा जाता है। इनमें काफी बड़ी मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन-E विघमान रहता है। कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन कैल्शियम, मैग्नीशियम भी समुचित मात्रा में पाया जाता है। मिलेट फसलों के बीज में फैटो नुत्त्रिएन्ट पाया जाता है। जिसमें फीटल अम्ल होता है, जो कोलेस्ट्राल को कम रखने में सहायक साबित होता है। इन अनाजों का निमयित इस्तेमाल करने वालों में अल्सर, कोलेस्ट्राल, कब्ज, हृदय रोग और कर्क रोग जैसी रोगिक समस्याओं को कम पाया गया है।

मिलेट यानी मोटे अनाज की कुछ अहम फसलें

ज्वार की फसल

ज्वार की खेती भारत में प्राचीन काल से की जाती रही है। भारत में ज्वार की खेती मोटे दाने वाली अनाज फसल और हरे चारे दोनों के तौर पर की जाती है। ज्वार की खेती सामान्य वर्षा वाले इलाकों में बिना सिंचाई के हो रही है। इसके लिए उपजाऊ जलोड़ एवं चिकिनी मिट्टी काफी उपयुक्त रहती है। ज्वार की फसल भारत में अधिकांश खरीफ ऋतु में बोई जाती है। जिसकी प्रगति के लिए 25 डिग्री सेल्सियस से 30 डिग्री सेल्सियस तक तापमान ठीक होता है। ज्वार की फसल विशेष रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में की जाती है। ज्वार की फसल बुआई के उपरांत 90 से 120 दिन के समयांतराल में पककर कटाई हेतु तैयार हो जाती है। ज्वार की फसल से 10 से 20 क्विंटल दाने एवं 100 से 150 क्विंटल हरा चारा प्रति एकड़ की उपज है। ज्वार में पोटैशियम, फास्पोरस, आयरन, जिंक और सोडियम की भरपूर मात्रा पाई जाती है। ज्वार का इस्तेमाल विशेष रूप से उपमा, इडली, दलिया और डोसा आदि में किया जाता है।

बाजरा की फसल

बाजरा मोटे अनाज की प्रमुख एवं फायदेमंद फसल है। क्योंकि, यह विपरीत स्थितियों में एवं सीमित वर्षा वाले इलाकों में एवं बहुत कम उर्वरक की मात्रा के साथ बेहतरीन उत्पादन देती हैं जहां अन्य फसल नहीं रह सकती है। बाजरा मुख्य रूप से खरीफ की फसल है। बाजरा के लिए 20 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूल रहता है। बाजरे की खेती के लिए जल निकास की बेहतर सुविधा होने चाहिए। साथ ही, काली दोमट एवं लाल मिट्टी उपयुक्त हैं। बाजरे की फसल से 30 से 35 क्विंटल दाना एवं 100 क्विंटल सूखा चारा प्रति हेक्टेयर की पैदावार मिलती है। बाजरे की खेती मुख्य रूप से गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में की जाती है। बाजरे में आमतौर पर जिंक, विटामिन-ई, कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर तथा विटामिन-बी काम्प्लेक्स की भरपूर मात्रा उपलब्ध है। बाजरा का उपयोग मुख्य रूप से भारत के अंदर बाजरा बेसन लड्डू और बाजरा हलवा के तौर पर किया जाता है।

रागी (मंडुआ) की फसल

विशेष रूप से रागी का प्राथमिक विकास अफ्रीका के एकोपिया इलाके में हुआ है। भारत में रागी की खेती तकरीबन 3000 साल से होती आ रही है। रागी को भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न मौसम में उत्पादित किया जाता है। वर्षा आधारित फसल स्वरुप जून में इसकी बुआई की जाती है। यह सामान्यतः आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, तमिलनाडू और कर्नाटक आदि में उत्पादित होने वाली फसल है। रागी में विशेष रूप से प्रोटीन और कैल्शियम ज्यादा मात्रा में होता है। यह चावल एवं गेहूं से 10 गुना ज्यादा कैल्शियम व लौह का अच्छा माध्यम है। इसलिए बच्चों के लिए यह प्रमुख खाद्य फसल हैं। रागी द्वारा मुख्य तौर पर रागी चीका, रागी चकली और रागी बालूसाही आदि पकवान निर्मित किए जाते हैं।

कोदों की फसल

भारत के अंदर कोदों तकरीबन 3000 साल पहले से मौजूद था। भारत में कोदों को बाकी अनाजों की भांति ही उत्पादित किया जाता है। कवक संक्रमण के चलते कोदों वर्षा के बाद जहरीला हो जाता है। स्वस्थ अनाज सेहत के लिए फायदेमंद होता है। इसकी खेती अधिकांश पर्यावरण के आश्रित जनजातीय इलाकों में सीमित है। इस अनाज के अंतर्गत वसा, प्रोटीन एवं सर्वाधिक रेसा की मात्रा पाई जाती है। यह ग्लूटन एलजरी वाले लोगो के इस्तेमाल के लिए उपयुक्त है। इसका विशेष इस्तेमाल भारत में कोदो पुलाव एवं कोदो अंडे जैसे पकवान तैयार करने हेतु किया जाता है।

सांवा की फसल

जानकारी के लिए बतादें, कि लगभग 4000 वर्ष पूर्व से इसकी खेती जापान में की जाती है। इसकी खेती आमतौर पर सम शीतोष्ण इलाकों में की जाती है। भारत में सावा दाना और चारा दोनों की पैदावार के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह विशेष रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार और तमिलनाडू में उत्पादित किया जाता है। सांवा मुख्य फैटी एसिड, प्रोटीन, एमिलेज की भरपूर उपलब्ध को दर्शाता है। सांवा रक्त सर्करा और लिपिक स्तर को कम करने के लिए काफी प्रभावी है। आजकल मधुमेह के बढ़ते हुए दौर में सांवा मिलेट एक आदर्श आहार बनकर उभर सकता है। सांवा का इस्तेमाल मुख्य तौर पर संवरबड़ी, सांवापुलाव व सांवाकलाकंद के तौर पर किया जाता है।

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चीना की फसल

चीना मिलेट यानी मोटे अनाज की एक प्राचीन फसल है। यह संभवतः मध्य व पूर्वी एशिया में पाई जाती है, इसकी खेती यूरोप में नव पाषाण काल में की जाती थी। यह विशेषकर शीतोष्ण क्षेत्रों में उत्पादित की जाने वाली फसल है। भारत में यह दक्षिण में तमिलनाडु और उत्तर में हिमालय के चिटपुट इलाकों में उत्पादित की जाती है। यह अतिशीघ्र परिपक्व होकर करीब 60 से 65 दिनों में तैयार होने वाली फसल है। इसका उपभोग करने से इतनी ऊर्जा अर्जित होती है, कि व्यक्ति बिना थकावट महसूस किये सुबह से शाम तक कार्यरत रह सकते हैं। जो कि चावल और गेहूं से सुगम नहीं है। इसमें प्रोटीन, रेशा, खनिज जैसे कैल्शियम बेहद मात्रा में पाए जाते हैं। यह शारीरिक लाभ के गुणों से संपन्न है। इसका इस्तेमाल विशेष रूप से चीना खाजा, चीना रवा एडल, चीना खीर आदि में किया जाता है।
जानिए सांवा की खेती कैसे की जाती है (Sava ki kheti)

जानिए सांवा की खेती कैसे की जाती है (Sava ki kheti)

सांवा की फसल भारत की एक प्राचीन फसल है यह सामान्यतः असिंचित क्षेत्रो में बोई जाने वाली सूखा प्रतिरोधी फसल हैI असिंचित क्षेत्रो में बोई जाने वाली मोटे अनाजों में इसका महत्वपूर्ण स्थान हैI इसमे पानी की आवश्यकता अन्य फसलो की अपेक्षा काम पड़ती हैI सांवा का उपयोग चावल की तरह किया जाता हैI इसका हआ चारा पशुओ को बहुत ही पसंद आता हैI इसमे चावल की तुलना में पोषक तत्वों के साथ-साथ प्रोटीन की पाचन योग्यता 40 प्रतिशत तक होती हैी सामान्यतः सांवा की फसल काम उपजाऊ वाली मिट्टी में बोई जाती हैI इसे आंशिक रूप से नदियों के किनारे की निचली भूमि में भी उगाया जा सकता हैI लेकिन इसके लिए बलुई दोमट एवं दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त होती हैI सांवा के लिए हल्की नम व् उष्ण जलवायु उपयुक्त होती हैI यह एक खरीफ मौसम की फसल है

सांवा की उन्नतशील प्रजातियां कौन-कौन सी पाई जाती है?

सांवा की बहुत सी प्रचलित प्रजातियां है जैसे की टी.46, आई. पी.149, यु.पी.टी.8, आई.पी.एम.97, आई.पी.एम.100, आई.पी.एम.148, आई.पी.एम.151 आदि है

सांवा की फसल के लिए खेत की तैयारी किस प्रकार से करनी चाहिए?

मानसून प्रारम्भ होने से पहले खेत की जुताई करना आवश्यक है वर्षा शुरू होने पर पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो-तीन जुताई कल्टीवेटर या देशी हल से करके खेत को भुरभुरा बना लेना चाहिएI पहली जुताई में 50 से 100 कुंतल कम्पोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर की दर से भली भांति मिला देना चाहिएI

सांवा की फसल में बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर कितनी लगती है तथा बीज शोधन हमें किस प्रकार करना चाहिए?

अच्छी गुणवत्तायुक्त 8 से 10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोना चाहिएI यदि बीज उपचारित नहीं है तो 2.5 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम की दर से बीज उपचारित कर लेना चाहिएI

सांवा की फसल की बुवाई हमें किस विधि से तथा किस समय करनी चाहिए?

सांवा की बुवाई का उत्तम समय 15 जून से 15 जुलाई तक है मानसून प्रारम्भ होने पर इसकी बुवाई कर देना चाहिएI इसकी बुवाई ज्यादातर छिटकवा विधि से करते हैI लेकिन बुवाई कूड़ बनाकर तीन से चार सेंटीमीटर की गहराई पर करनी चाहिएI कुछ स्थानो पर रोपाई भी करते है लाइन से लाइन की दूरी 25 सेंटीमीटर रखते हैI यह भी पढ़ें: मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

सांवा की फसल में खाद एवं उर्वरको का प्रयोग किस प्रकार करना चाहिए तथा कितनी मात्रा में करना चाहिए?

50 से 100 कुंतल कम्पोस्ट खाद के साथ-साथ नत्रजन 40 किलोग्राम, फास्फोरस 20 किलोग्राम तथा पोटाश 20 किलोग्राम तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिएI फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के पहले तथा नत्रजन की आधी मात्रा 25 से 30 दिन बुवाई के बाद खड़ी फसल में देना चाहिएI

सांवा की फसल में कब तथा कैसे सिंचाई करनी चाहिए?

सामान्यतः सांवा की खेती में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योकि यह खरीफ अर्थात वर्षा ऋतू की फसल है लेकिन काफी समय तक जब पानी नहीं बरसता है तो फूल आने की अवस्था में एक सिंचाई करना अति आवश्यक हैI जल भराव की स्थिति वाली भूमि में जल निकास होना आवश्यक है 

सांवा की फसल में निराई-गुड़ाई कब करनी चाहये तथा खरपतवारो पर नियंत्रण हमें कैसे करना चाहिए?

सामान्यतः सांवा में दो निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है I पहली निराई-गुड़ाई 25 से 30 दिन बाद तथा दूसरी पहली के 15 दिन बाद करना चाहिए निराई-गुड़ाई करते समय विरलीकरण भी किया जाता हैI यह भी पढ़ें: जानिए कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में क्या-क्या अंतर होते हैं

सांवा की फसल में कौन-कौन से रोग लगते है तथा उनका नियंत्रण कैसे करना चाहिए?

सांवा में तुलसित, कंडुवा, रतुआ या गेरुई रोग लगते हैI रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर अलग कर देना चाहिए तथा मैन्कोजेब 75% डब्लू. पी. को 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिएI इसके साथ ही साथ बीज उपचारित ही बोना चाहिए। 

सांवा की फसल में कौन-कौन से कीट लगते है उनका नियंत्रण कैसे करना है?

इसमे दीमक एवं तना छेदक कीट लगते है नियंत्रण हेतु खेत में कच्चे गोबर का प्रयोग नहीं करना चाहिए, बीज शोधित करके बोना चाहिए, फोरेट 10 % सी.जी. 10 किलोग्राम या कार्बोफ्यूरान 3% ग्रेन्यूल 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए अथवा क्यूनालफास 25 ई.सी. 2 लीटर की दर से प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिएI

सांवा की फसल में कटाई एवं मड़ाई कब करनी चाहिए?

सांवा की फसल पकाने पर ही कटाई हसिया द्वारा पौधे सहित करनी चाहिएI इसके छोटे-छोटे बण्डल बनाकर खेत में ही एक सप्ताह तक धूप में अच्छी तरह सुखाकर मड़ाई करनी चाहिएी

सांवा की फसल में प्रति हेक्टेयर कितनी पैदावार या उपज प्राप्त होती है?

इसकी पैदावार में दाना 12 से 15 कुंतल प्रति हेक्टेयर तथा भूसा 20 से 25 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता हैI